अवधी खबर संवाददाता
अम्बेडकरनगर।
जिले में ज़मीन विवाद अब जानलेवा होता जा रहा है। खेत-खलिहानों की मिट्टी अब अनाज नहीं, नफरत और हिंसा उपजा रही है। तहसील और जिला प्रशासन की उदासीनता ने ग्रामीण जीवन को संकट में डाल दिया है। जिम्मेदार अफसर फाइलों में आख्या तलाशते रहते हैं, वहीं कानूनगो और लेखपाल जेब गरम हुए बिना पैमाइश और पत्थर नसब जैसे जरूरी कार्य भी नहीं करते।
सरकार ने राजस्व विवादों को हल करने के लिए तहसील दिवस, थाना समाधान दिवस जैसे मंच तो बना दिए, मगर सच्चाई ये है कि अधिकारी फील्ड में जाकर समस्याओं का समाधान करने की बजाय अपनी कुर्सियों से चिपके रहते हैं। पीड़ित किसान न्याय की उम्मीद में तहसील और थानों के चक्कर काटते रहते हैं, जबकि जमीन विवाद गहराता चला जाता है।
हर तीसरी आपराधिक घटना की जड़ कहीं न कहीं ज़मीन विवाद ही निकल रही है।अवैध कब्जा, बंटवारे को लेकर झगड़े, रास्ते को लेकर संघर्ष, और खून-खराबा अब आम हो चला है। सीमांकन जैसे कामों के लिए किसान धारा 24 के तहत कोर्ट में दावा करते हैं,
हजारों रुपये ट्रेज़री में जमा करते हैं, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। कभी पुलिस नहीं मिलती, कभी लेखपाल नदारद, और जब मिलता है तो बिना घूमा-फिराकर खर्चा-पानी मांगा जाता है। जैसे ही जेब ढीली होती है, तब जाकर अब हो जाएगा जैसे भरोसे दिए जाते हैं।
सैदापुर तालाब की दुर्दशा—10 साल से चला आ रहा संघर्ष
सैदापुर गांव का तालाब (गाटा संख्या 907) अतिक्रमण की चपेट में है। पूर्व प्रधान और वर्तमान प्रधान दोनों सालों से तालाब को कब्जा मुक्त कराने के लिए संघर्षरत हैं। मुकदमे चल रहे हैं, आदेश दर आदेश पारित हो रहे हैं, मगर न कोई निष्कर्ष, न कोई कार्रवाई। बारिश का सीजन आ चुका है, जलनिकासी की समस्या विकराल हो रही है, बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है।
लेकिन जिम्मेदारों की नींद नहीं टूटी। जब प्रधानों की बात अनसुनी रह जाती है, तो आम जनता का क्या होगा? यही सबसे बड़ा सवाल है। यदि समय रहते सीमांकन, नापजोख और अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की जाए, तो कई विवादों, संघर्षों और खून-खराबे से बचा जा सकता है। लेकिन फिलहाल किसी को फर्क नहीं पड़ता।




