
जब भी गाँव की कभी किसी से चर्चा होती है तो मेरा दिल हिलोरें लेने लगता है। बस मन में यही हूक सी उठने लगती हैं कि–चलो दिलदार चलो शहरिया के पार चलो- जहाँ दरख्तों की छांव हो,रंभाती गायें हो साथ में बछिया-बछवा हों। जहाँ बगिया में आम,अमरूद, इमली,जामुन,महुआ, पीपल,बरगद,पाकड़,गूलर,कटहल,केला हो। सभी का साथ हो, न कोई अकेला हो। जहाँ इनार हो,पोखर हो। इनारे पर डोर,गागर हो। अच्छी सी बगिया हो चहूँ ओर खेत और खलिहान हो। बगल में इक छोटा सा खपरैल वाला घर और छप्पर की छांव हो। घर में कोठा,अटारी,ताखा,भड़सार और हर कमरा में हवा आवे खातिर मुक्का और मुक्की हो। आगे दालान खमिहा वाली हो। हाता के ओर ओसारी,खिरकिया में जांता, कांड़ी अउरी चाकी हो। ओसरिया के बगलिया वाली कोठरी में दूध बैठा वे के खातिर हौदी से ढाकी गोइंठी की आग हो। आँगन में चूल्हा और चौका लीपा-पोता हो।
दुआरे पर निमिया की छांव हो,नीचे बसखटा निखड़हर हो।खरिहान हो बगल में बरगद के तरे कल और कोल्हार हो। एक तरफ मड़ई और सार हो।

दुअरा पर बैल ,भैंस, गाय क चरन हो। पुन्नी -नैकी बाग हो,पांचों पेड़वा हो।शैतानों से भरा ताल हो,चुड़ैल वाली फुलवरिया हो,ओरी काका का चौरा हो। आगे मीरा साहब बाबा का थान हो।
सुबह-शाम लोगों की बैठकी होती रहे। सुरती और बीड़ी का दौर चलता हो। जाड़े में दुआर पर कौड़ा जलता हो। सुबह-सुबह खुद्दी बाबा, मन्नू बाबा,हेमराज बाबा जगेसर भाई,कतारु काका,रामदेव बाबा,नयन काका,सुखई काका, ठानी काका वगैरह-वगैरह हों। मुनेसर काका,बदलू काका,करन दादा वगैरह भी हों। भगवान बाबा के पान की पीक उनकी अपनी ही मिरजई को रंगीन करती हो। जहाँ लक्खो बूढ़ी,झुलरा माई, हीरा माई,नैकीना माई, कुसुमी काकी,पियारी भौजी हों। अच्छू बाबू ,जतन काका,छोटकुन बाबा की धमक हो। भृगु दादा की अलमस्तता भी हो। लौटन काका और जतन काका की बतकही हो। रामचेत काका की खुरपी,नेता काका की सफेद झक टोपी,प्रधान काका की मूंछे,दाऊ काका का कवित्त,पांड़े काका की बाटी हो।बिस्सू-किस्सू,निहोर के किस्से हों।बहरैची,दुखरन,गाने,पलटन वगैरह भी हों।
गॉव-गिरांव की यह कथा बहुत लंबी है। स्मृतियां तो मधुर ही होती हैं। दुःख में भी सुख ढूढ़ लेती हैं। जहां खेत में काम करते-करते जब थक जाते तो पेड़ की छांव तले सुस्ता लेते रहे। उसी गाँव चलना है ऐ मीत जहां काली माई का चौरा हो,डीह बाबा का थान हो,बुढ़वा बाबा और मरी का स्थान हो। उस गाँव चल रे मीत जहाँ शांति हो,जहाँ सुकून की जिंदगी हो,उस गाँव चल जहाँ न तो प्रदूषण हो न ही किसी भी प्रकार की कलह-क्लेश। उस गाँव चल जहाँ इनार और पोखर हों। गाय और बछड़े कुलांचे मार रहे हों। हीरा – मोती बैलों की जोड़ी हो।कोल्हू की पिहकन हो,गुलौर की पुछिया हो,रहट की चीं -चीं हो। जहाँ पेड़ों की डालियों पर बच्चों की बन्दरों की तरह उछलकूद हो। नंग – धड़ंग बेलौस बचपन हो,कंचा, गुल्ली-डंडा हो।
डॉ. ओ.पी.चौधरी
संरक्षक, अवधी खबर;समन्वयक,अवध परिषद, उत्तर प्रदेश।





